फड़ चित्रकारी और गांवों की संस्कृति में कभी मनोरंजन के लिए फड़ वाचन की अटूट परम्परा से खासतौर पर दो वर्गों का जुड़ाव रहा हैय एक चित्रकारी के आयाम को पीढ़ी दर पीढ़ी गति देने वाला दक्षिणी राजस्थान के जोशी घराना और दूजी ओर फड़ वाचन की धरोहर को आज तलक बनाये रखने वाले भोपा-भोपी के परिवार। एक जमाना था जब गांवों में परिवार अपने दुःखदर्द के खत्म होने या अपनी मनौती के पूरी होने पर लोक देवी देवताओं में अपनी आस्था को पूरते हुए फड़ों का वाचन करवाया करते थे। ये वो जमाना था जब 20 से 35 फीट लम्बी फड़ों को बनाने के काम से चित्रकारों को रोजी-रोटी का साधन उपलब्ध था, वहीं भोपा-भोपी के लिए भी आजीविका लगातार चल पा रही थी। वक्त के थपेड़ों ने इसी चित्रकारी परम्परा को संक्रमण के कई दौर उपहार में दिये हैं।
सांस्कृतिक गौरव का प्रतीक, राजस्थान की ये कलाकारी अपने गौरव और विशिष्ठ रंगों की बदौलत आज नहीं, बरसों से हिन्दुस्तान की एक प्रमुख चित्रकारी परम्परा बन कर उभरी है। इस चित्रकारी में खासतौर पर चटकीले रंगों को कलाकार स्वयं तैयार करता है और भरता है। मूलरूप से ये चित्रकारी कपड़ों पर ही की जाती रही है। जहां सूती कपड़े पर चावल या आरारोट का कलफ चढ़ाकर चित्रकारी के लिये कपड़ा तैयार किया जाता है और उसी कपड़े को चमकीला बनाने के लिये उसे लकड़ी या पत्थर के एक औजार से घीसकर गुटाई भी की जाती है। बहुत पुरानी बात करें तो लोक देवता पाबूजी, गोगाजी, देवनारायणजी, तेजाजी, रामदेवजी, कृष्ण दल्ला, रामदल्ला की फड़ें बनवाई जाती रही, लेकिन बदलते हुए वक्त में वैसी लम्बी-चौड़ी फड़े कम ही बनने लगी है। पर्यटन को केन्द्र बनाकर अब कलाकारों ने धीरे-धीरे फड़ों के टूकड़े करना शुरू कर दिया हैं जिसमें वे छोटी तस्वीरनुमा चित्रकारी के नमूने तैयार कर बेचा करते हैं। सरकारी सहयोग के भरोसे कभी रहे तो कभी ना भी रहे, मगर एक बात बड़ी साफ है कि भीलवाड़ा और चित्तौड़गढ़ में बसे ये फड़ चित्रकारी के कलाकार परिवार के परिवार रूप में लगे रहते हुए इस काम को आज भी आगे बढ़ा रहे हैं।
लम्बी चौड़ी फड़ांे को गांवो में जब वाचन के लिये भोपा-भोपी तैयार होते हैं तो वहां का आलम बिल्कुल लोक संस्कृति की असल झलक देने वाला हो जाता है। चौपाल पर एक तरफ फड़ को लगा दिया जाता है और भोपा हाथ में रावणहत्था या सांरगी लेकर बजाते हुए अपनी गीतों भरे संवादों से लोक देवताओं के जीवन खास-खास कहानियाँ सुनाता है। दूसरी ओर भोपी कहानियों से जुड़े हुए चित्रों को अपने हाथ में लिये दीये से दिखाती है।भोपी ऐसे अवसर पर गीत की अंतिम लाइन को फिर से गाती हुई टेर लगाती है, इस प्रकार ये लोक धुनों पर चलता हुआ आयोजन रात भर चलता है। फड़ वाचन के ऐसे कार्यक्रम पिछले दो दशकों में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर खासे प्रसिद्ध हुए हैं।
इसी परम्परा मंे जन्म से ही जुड़े हुए चित्तौड़गढ़ के फड़ चित्रकार सत्यनारायण जोशी ने भी अपनी ओर से भक्तिमती मीरा पर एक फड़ का निर्माण भी किया है। दिखने में साधारण पहनावे वाले सत्यनारायण भी दक्षिण राजस्थान के जोशी घराने के उत्तराधिकारी हैं। जून, 1960 में मोतीलाल जोशी के पुत्र के रूप में जन्में सत्यनारायण ने बचपन से ही इस कारीगरी का माहौल देखा है। सही रूप में उम्र के 18 बसन्त देखने के बाद ही फड़ चित्रकारी सीखने और आगे बढ़ाने में लगे और आज तक इस काम को कर रहे हैं। अपनी कल्पना और लगन से चित्तौड़गढ़ के साथ-साथ कई शहरों में पाँच से दस दिनों की कार्यशालाओं के जरिये कई कलाप्रेमी विद्यार्थियों को इस मौलिक चित्रकारी का ज्ञान बाँट चुके हैं। अलवर, कानपुर, कोहिमा, बीकानेर, में कार्यशालाओं के साथ-साथ कुछ शहरों में अपनी फड़ कृतियों की प्रदर्शनियां भी आयोजित कर पाये हैं। प्रदर्शनियांे का आयोजन हनुमानगढ़, निम्बाहेड़ा (चित्तौड़गढ़), चित्तौड़गढ़, अलवर, कानपुर, उदयपुर, बीकानेर में बहुत सराहा गया।
राजपूत और मुगल शैली से बहुत रूप में प्रभावित इस चित्रकारी में समय के साथ जोशी घरानें ने कई नये प्रकार की जैसे- ढ़ोला-मारू, जौहर, हल्दीघाटी युद्ध, दशावतार, पृथ्वीराज चौहान की फड़ें भी बनाई हैं। इस पूरी यात्रा में भीलवाड़ा के श्रीलाल जोशी को वर्ष 2006 में राष्ट्रपति द्वारा पद्मश्री पुरस्कार से नवाजा जा चुका है। भारत सरकार द्वारा इस परम्परा को आदर देते हुए दो सितम्बर, 1992 को लोक देवता देवनारायण पर बनी फड़ कृति का एक डाक टिकिट भी जारी किया गया। इसी यात्रा में सत्यनारायण जोशी को भी अन्तर्राष्ट्रीय छात्र आन्दोलन स्पिक मैके, राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी बीकानेर, दैनिक भास्कर चित्तौड़गढ़, आकृति कला संस्थान चित्तौड़गढ़, जे.के. सीमेन्ट चित्तौड़गढ़, मीरा स्मृति संस्थान चित्तौड़गढ़, अंगीरा शोघ संस्थान जिन्द (हरियाणा) द्वारा विभिन्न मंचों पर सम्मानित किया जा चुका है।
सत्यनारायण जोशी और इनके परिवार को लोकमर्मज्ञ स्वर्गीय देवी लाल सामर, हैण्डीक्राफ्ट बोर्ड नई दिल्ली, भारतीय लोक कला मंडल उदयपुर की ओर से समय-समय पर इस कला को जीवित रखने और संवर्धित करने का अवसर और सहयोग दिया जाता रहा है। इस परम्परा को आगे बढ़ाने के लिये चित्रकार सत्यनारायण जोशी के कई सारे शिष्यों के साथ-साथ उनके पुत्र दिलीप कुमार और मुकेश कुमार भी इस कला को सीख उन्ही के साथ काम कर रहे है। यह अलग बात है कि समय-समय पर इस कलाकारी और चित्रकृतियों के प्रति जनमानस और कलाप्रेमियों का भरपूर सहयोग नही मिलने पर इस परिवार को अन्य व्यवसाय भी अपनाने पड़े। अपनी ही माटी के रंगो से जुड़ी ये कारीगरी, इन कलाकारों के धैर्य और परिवारजन के सहयोग के बूते आगे बढे़गी लेकिन संरक्षण के लिये सरकार, स्वंयसेवी संस्थान और औद्योगिक घरानों का अपने सामाजिक सरोकारों के प्रति दायित्व समझना भी महती जरूरी है।
आज के वक्त में ये बात बड़ी साफ है कि फड़ चित्रकारी करने वाले ये कलाकार अपनी इस कला को आगे बढ़ाने के लिये खुद अकेले ही जंग लड़ रहे हैं और दूसरी ओर लम्बी चौड़ी, लोक देवताओं के जीवन पर बनी फड़ों के खरीददार भोपा-भोपी की संख्या भी कम होती जा रही है। सत्यनारायण जोशी अब समय की नजाकत को समझते हुए लम्बी चौडी फड़ों के साथ ड्रेस मटेरियल, बेड-शीट, पीलो कवर पर ये कारीगरी दिखाने के साथ-साथ भित्ति-चित्रों के लिये भी अपनी कलम चला रहे है। ऐसी प्रतिभा के धनी कलाकार सत्यनारायण जोशी को अभी तलक कोई बड़ा स्तरीय पुरस्कार नहीं मिल पाया है मगर उनके प्रशंसकों की शुभकामनाएं और उनकी संख्या तो लगातार बढ़ ही रही है। पिछले कई सालों से इस शैली में ये कलाकार शादी ब्याह के अवसर पर घरों के बाहर हाथी, घोड़े, ऊंट, दूल्हा-दूल्हन का चित्रांकन भी करते रहे हैं।फड़ चित्रकारी की इस परम्परा मे बने चित्र, उनके चटकीले रंग जहां सभी को देखने चाहिये वही यदि मौका मिले तो गांव की चौपाल पर फड़ वाचन के आयोजन में भी शामिल होना चाहिये।
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