Rangkarmi Habib Tanveer - Apni Maati: Personality

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Sunday, March 25, 2012

Rangkarmi Habib Tanveer


(जन्म 1 सितंबर 1923-निधन 8 जून 2009)

छत्तीसगढ़ी संस्कृति को अपने असीम हुनर के जरिए पूरे विश्व में पूरजोर तरीके से रखते हुए एक समानतापरक समाज के मुद्दे को मजबूती देता हुआ अनोखे व्यक्तित्व हबीब तनवीर आज हमारे बीच नहीं है। उनके बारे में, उनके नहीं होने के बाद लिखने में श्रद्धा और श्रद्धांजलि के भाव में डूबी मेरी कलम अपने ढंग से कुछ लिखने का साहस कर रही है। स्पिक मैके जैसे सांस्कृतिक अधिक मगर लगभग सभी विरासती पहलुओं को समेटते हुए लाखों विद्यार्थियों के दिलो-दिमाग पर दस्तक देने वाले छात्र आन्दोलन ने ही मुझे ऐसा सुनहरा अवसर दिया कि मैं हबीब तनवीर जैसे विरासत पुरूष से मिलने, उन्हें देखने और मन ही मन लगातार सवाल करने का मौका पा सका।

बरस 2003 के गर्मियों के दिनों की बात हैइधर-उधर से पैसे का जुगाड़ कर मुझे स्पिक मैके के राष्ट्रीय सम्मेलन में जाने को मिला। व्यवस्थित और डरे-डरे से एक अनुशासित प्रतिभागी की तरह मैं भी सनबीम स्कूल बनारस की चार दिवारी में तनवीर जी से दूर बैठे-बैठे पहली मुलाकात को गढ़ रहा था। एक ऐसी मुलाकात जिसमें मेरे दिल में उनसे पूछताछ करने के लिए कई सारे सवाल खड़े थे। वे लगभग चुप थे, लगे हुए थे अपने काम में। ऐसा लगता था मेरे हर प्रश्न का जवाब वे अपने हाव-भाव और काम करने के तरीके से दिए जा रहे थे और मैं बस उन्हें देख रहा था।

आज भी याद है वो दुबली काया, थोड़े से लम्बे बाल, सीधी-सादी पोशाक में, लेकिन उनके होठों पर लगा दाँतों के बीच पकड़ा हुआ तो कभी कभार एक हाथ से थामे हुए सिगार। साथ ही चश्में के पीछे पैनी नजर रखती हुई उनकी अनुभवी आँखें और आँखों के सामने उनके सानिध्य में काम करते छत्तीसगढ़ के सीधे-सादे कलाकार। अंग्रेजी और हिन्दी के साथ-साथ कभी-कभार छत्तीसगढ़ी भाषा में डायलॉगबाजी करते हुए हबीब जी के चारों ओर खड़े कई सारे उनके तारीफ़दार देख रहा था। उनका कभी कभार तुनक कर जवाब दे जाना और कभी बहुत लम्बी, गहरी सोच में बैठे रहना, याद आता है।

ठीक से याद नहीं लेकिन ठेठ छत्तीसगढ़ी आदिवासियों की छुपी- छुपाई कलाकारी को परख कर निखारने के लिए आँखें गढ़ाए काम करना उनकी आदत में शुमार था। देशभर के साथ ही विदेशी धरती पर घूमने- फिरने के बाद कोई बड़ी नौकरी करके और लाखों रूपये की कमाई के तरीकों को छोड़ गंवई संस्कृति से अभिभूत होकर आम आदमी की मजबूरियों का समाजशास्त्र समझते हुए उन्होंने ‘‘नया थिएटर’’ के नाम से अपनी संघर्षमयी यात्रा की शुरूआत की। पच्चीस से तीस कलाधर्मी, गरीब और लगभग बेकाम के आदिवासी छत्तीसगढ़ी पुरूषों और महिलाओं को साथ लेकर उनका प्रसिद्ध नाटक ‘‘चरणदास चोर’’ का बनारस में मेरा देखा हुआ प्रदर्शन आज भी रह-रह कर रोमांचित करता है। उस समय मालूम नहीं था कि हबीब जी बहुत बड़े व्यक्तित्व हैं।

टीवी और रेडियो के जरिए नाटकों को देखने पर मैं पहली बार सजीव नाट्यमंचन को देख, चकित था। बनारस में हुए कार्यक्रम के बाद रौंगटे खड़े होने की बात को वाकई अनुभव कर रहा था। देहाती संस्कृति, भाषा, पहनावा और लोकगीत आदमी में कितना अंदर तक असर कर सकते हैं? उसी दिन जान पाया था। लगे हाथ हबीब जी के साथ कुछ साथियों को बटोर कर एक फोटो भी क्लिक करवा लिया। जिस दिन  उनके नहीं होने की खबर मुझे मिली तो अपने जीवन और आस पास में कुछ खाली सा लगा। तुरन्त अटाले में पड़ी एलबम संभाली, कहीं दबा हुआ वही फोटो मेरे हाथ में था और मैं लिख रहा था उस रंगमंच की दुनिया के अस्त हुए सूरज से मेरी पहली मुलाकात का अनुभव।

बाद के बरसों में उनको अख़बार, टीवी, फिल्मों और अपने बड़े बुजुर्गों के जरिए पढ़ता रहा और जानता रहा। भोपालवासी होकर भी अपनी लम्बी यात्राओं से पूरे संसार के लिए अपने थे। लम्बे भाषण, कॉमरेडी छवि, उर्दू जबान, इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ में उनका काम, देशभर में उनके नाट्य मंचन का विरोध, कई राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय सेमिनारों में उनके व्याख्यान उन्हें अमर कर गये। दर्जनों फिल्मों के लिए उन्होंने अपने हुनर को जनता के दिलो दिमाग पर असर करने के लिए छोड़ दिया था। दर्शकों को नाटक देखने के बाद सोचने के कई सारे मुद्दे देने की ताकत रखने वाले हबीब जी के बारे में उनके कई शिष्यों के जरिए भी मैं उनसे लगातार जुड़ रहा था।

वर्ष 2005 में मणिपाल (कर्नाटक) में हुए राष्ट्रीय अधिवेशन के दौरान उनके बगैर उनकी नाट्य मंडली के कलाकारों द्वारा प्रस्तुत ‘‘पोंगा पंडित’’ का एकशोदेखा और शो के एक दिन पहले ही उनकी इस संघर्ष यात्रा में सहयोगी रही मोनिका मिश्रा (पत्नी) के नहीं रहने की खबर मिली। ऐसे में उनके बहुत बड़े सहारे का उठ जाना उनकी इस यात्रा में रूकावट पैदा करने के लिए पर्याप्त था, मगर बेटी नगीन तनवीर के सहयोग से वे अनवरत काम करते रहे। हौंसला हारते हुए लगातार चलने वाले इस राहगीर को कभी संगीत नाटक अकादमी तो कभी पद्मश्री और पद्मभूषण जैसे सम्मानों से भी नवाजा गया। इस यात्रा में कभी राज्यसभा सदस्य रहकर भी अपनी ज़बर्दस्त उपस्थिति दर्ज कराने वाले हबीब जी आज हमारे बीच नहीं है, विश्वास नहीं होता। लगता तो यूँ भी है कि वे अब और ज्यादा अच्छे से हमारे बीच हैं।

यपुर और नागपुर में अपने बचपन को गुजारने वाला व्यक्तित्व कब हिन्दुस्तान के हर कलाप्रेमी के दिल पर राज करने वाला राजा बन गया, पता नहीं चला। पता तो यह भी नही चला कि ‘‘आगारा बाजार‘‘, ‘‘मिट्टी की गाड़ी’’, ‘‘मुद्रा राक्षस’’, ‘‘गांव का नाम ससुराल-मोर नाम दामाद’’, ‘‘जिन्हें लाहोर नहीं देख्या’’ जैसे कईं नाटकों की बागडोर संभालने वाला अब नहीं रहा। दर्जनों फिल्मों के लिए लिखने वाला, चरणदास चोर और ब्लेक एण्ड व्हाईट जैसी फिल्मों के लिए अभिनय करने वाले हबीब तनवीर हमेशा हमें अपनी कविताओं और लेखनी के जरिए याद आता रहेगा। ऑल इण्डिया रेडियो मुम्बई ने प्रोड्यूसर के रूप में काम की शुरूआत करने वाले हबीब तनवीर ने अपने काम

के जरिए सबके लिए कुछ कुछ याद रखने को जरूर छोड़ा है।

हबीब जी ने अपने 85 साल के इस सफर में कई युवाओं और बड़े बुजुर्गों को अपने अनुभवों और नाटकों के जरिए बहुत कुछ सिखाया है। रास्ते की अड़चनें उनके लिए मजबूती देने में सहायक बनती गई। मणिपाल के अधिवेशन के एक साल बाद ही गाजियाबाद के उत्तम स्कूल में और भी छठी से बारहवीं तक के विद्यार्थियों का राष्ट्र स्तरीय आश्रमनुमा महोत्सव मेरे लिए फिर से हबीब जी से मिलने का बहाना साबित हुआ। राजस्थानी लेखक और विद्वान विजयदान देथा (विज्जी बाबू) की लिखी हुई रचना ‘‘चरणदास चोर’’ को नाटक के रूप में पूरी दुनियाभर में फैलाने वाले हबीब तनवीर किसी भी संदेह के बगैर, महापुरूष है।

शहनाई नवाज उस्ताद बिस्मिला खां, तबला विद्वान पं. किशन महाराज, गुरू अम्मानूर माधव चाक्यार हो या साहित्यकार निर्मल वर्मा या कि फिर लोककलाओं के जानकार कोमल कोठारी, सभी चले गये और अब रह गया है केवल उनके काम और उनकी यादों का सफर। देश की इन सिद्धहस्त, कर्मठ, योगी और तपस्या जैसे पवित्र शब्दों को साकार करने वाले कलाधर्मियों को पूरे आदर के साथ याद करने और उन्हें कई मायनों में जीने के लिए आप सभी को प्रेरित करने की तरफ मेरा इशारा है। अच्छा होता समय रहते कुछ सीख लेते, आज फिर से, जो भी बड़े फनकार है उनसे समय रहते सीख लिया जाए, कुछ पल उनके साथ बिता लिए जाए तो फायदा ही रहेगा। आने वाले समय में टीवी, रेडियो, इंटरनेट, अखबार और पत्रिकाओं में बड़े लोगों के बारे में बहुत कुछ लिखा और छपा हुआ मिल जाएगा, लेकिन नहीं मिलेगा तो उनसे सजीव बातचीत का मौका।


By Manik

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